मुंडा कौन है?
मुंडा भारत की एक आदिवासी समुदाय है जिनका मुख्य निवास स्थान झारखंड है।
जनसंख्या की दृष्टि से यह झारखंड की तीसरी सबसे बड़ी जनजाति है और यहां इनका मुख्य निवास स्थान रांची जिला है।
मुंडा लोग हिंदुओ से काफ़ी प्रभावित थे, मुंडा शब्द हिंदुओं द्वारा ही दिया गया है।
मुंडा लोग खुद को हाेरो कहते हैं, जिसका मतलब मनुष्य होता है। ये खुद को कोल भी कहते हैं।
मुंडा जनजाति की भाषा और जाति समूह
मुंडा लोग मुंडारी भाषा बोलते हैं।
ये लोग ऑस्ट्रेलियाईड प्रजाति के हैं जो पूर्वी एशिया होते हुए भारतीय उपमहाद्वीप में आ बसे, इनका आगमन आज से लगभग 600वर्ष ईसा पूर्व माना जाता है।
ये लोग अपनी भाषा को होड़ो जगर कहते हैं, इनकी भाषा ऑस्ट्रो एशियाटिक भाषा समूह से संबंधित है।
मुंडा जनजाति की वेशभूषा एवं रहन–सहन
मुंडा जनजाति में वस्त्र को बटोई और करेया कहते हैं, महिलाओं द्वारा पहनें जाने वाले वस्त्र पारेया कहते हैं।
मुंडा पुरूष लंगोटी पहनते थे जिसे ये लोग बटोय कहते हैं, मुंडा स्त्रियां कपड़ा लपेटती थी जिसे पड़िया कहा जाता है।
ऐसे परंपरागत वस्त्र अब केवल त्योहारों और विशेष अवसरों पर देखने को मिलते हैं।
मुंडा लोगों का घर मिट्टी का बना होता है, छत बांस और खपरैल की होती है। इस तरह से बने घर का तापमान सामान्य रहता है, इनपर सर्दी और गर्मी का प्रभाव कंक्रीट के घरों की तुलना मे कम पड़ता है।
इनके घरों में अधिकतर दो या तीन कमरे होते हैं जिसमे मांडी ओढ़ा नामक कमरे में सिर्फ घर के लोग ही आ जा सकते हैं, यहां पर ये लोग अनाज रखते हैं और यही पुरखों के आत्माओं के रहने की जगह भी है।
रानू या हड़िया इनका प्रमुख पेय पदार्थ है।
मुंडा लोगों का आर्थिक जीवन
कृषि के लिए जमीन अच्छी है बारिश भी अच्छी होती है जीवन–यापन के लिए कृषि करते हैं, इसके अलावा जंगल से कंदमूल, फल और वनौषधि इकट्ठा करते हैं। प्रतिबंध लगने से पहले शिकार भी किया करते थे।
कृषि वर्षा पर निर्भर करती है।
लड़कियों को बचपन से घर का कामकाज सिखाया जाता है, घर के कामकाज का पूरा जिम्मा औरतों के हाथ में होता है।
मुंडा जनजाति की सामाजिक व्यवस्था
मुंडा जनजाति महली मुंडा और कपाट मुंडा नामक दो शाखाओं में विभक्त है, इनमें एकल एवं संयुक्त दोनो तरह के परिवार देखने को मिलते हैं।
मुंडा जनजाति में पितृसत्तात्मक एवं पितृवंशीय सामाजिक व्यवस्था है। इनमें वंशकुल की परंपरा महत्त्वपूर्ण है, वंशकुल को ये खूंट कहते हैं।
मुंडा लोगों के गांव को हातु कहते हैं, और गांव के प्रधान को हातु मुंडा कहते हैं।
मुंडा मतलब गांव का विशिष्ट व्यक्ति होता है।
मुंडा गांव में पंचायत बैठने के स्थान और नाच–गान के मैदान को अखड़ा कहा जाता है।
गांव के धार्मिक प्रधान को पाहन कहते हैं और पाहन के सहायक को पुजार या पनभरा कहते हैं।
इनके ग्रामीण पुजारी को डेहरी कहते हैं।
मुंडा लोग प्रकृति पूजक है और इनके धर्म का आधार जीववाद है।
मुंडा जनजाति की कला संस्कृति एवं प्रमुख पर्व
मुंडा लोगों का सबसे महत्त्वपूर्ण पर्व सरहुल है जिसे बा परब के नाम से जाना जाता है।
बतौली पर्व को छोटा सरहुल कहा जाता है।
फसल की बुआई को ये लोग पर्व की तरह मनाते हैं, धानबुनी पर्व को ये लोग अनोबा पर्व कहते हैं।
इनमें कान छेदन संस्कार होता है, जिसे तुकुई लुटुर कहते हैं।
मुंडा जनजाति का युवागृह
युवागृह जनजातीय समाज का सामाजिक एवं सांस्कृतिक शिक्षण केंद्र होता है, जहां अविवाहित युवक–युवतियों को शिक्षा दिया जाता है।
मुंडा जनजाति के युवागृह को गीतिओना/गीतिओड़ा कहते हैं।
इस संस्था में युवक–युवतियों द्वारा नृत्य–संगीत की भी प्रस्तुति दी जाती है, जनजातियों की ऐसी संस्थाएं अब अपनी अंतिम सांसे गिन रही हैं।
मुंडा जनजाति में विवाह
मुंडा जनजाति के लोग विवाह को अरंडी कहते हैं, विवाह के दौरान गोत्र की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, गोत्र के मिलने पर ही विवाह होता है।
गोत्र को ये लोग किली कहते हैं, और इनके 300 से भी ज्यादा गोत्र है। समगोत्रीय विवाह वर्जित है।
दहेज प्रथा नहीं है, विवाह के लिए वधु मूल्य देना पड़ता है।
वधु मूल्य को ये लोग गोनोंग कहते हैं।
विवाह के दौरान समधी भेंट होता है जिसे होपा रूपा कहते हैं।
इनमें विधवा पुनर्विवाह होता है, विधवा विवाह को ये संगाई कहते हैं।
जनजाति के बाहर विवाह करना वर्जित है।
तलाक को साकमचारी के नाम से जाना जाता है।
इनमे राजी–खुशी विवाह, हरण विवाह, हठ विवाह, संगाई विवाह, आयोजित विवाह, सेवा विवाह होती हैं।
मुंडा जनजाति में मृत्यु संस्कार
इनमें जलाने और दफनाने दोनो की ही प्रथा है।
मृत्यु के बाद जलाने या दफनाने के स्थान को सासान (शमशान) कहते हैं।
सासान में मृतकों के स्मृति में पत्थर के शिलाखंड रखे जाते हैं जिसे सासान दीरी कहते हैं।
सासान में जुगटोपा समारोह के साथ मृतक व्यक्ति की हड्डियों को गाड़ी जाती है।
ये लोग मृतक के आत्मा को विशेष रस्म के जरिए घर में लाते हैं।
मुंडा लोगों के देवी–देवता
मुंडा लोगों के सर्वोच्च देवता सिंगबोंगा हैं, इनके पूजा स्थल को सरना कहा जाता है।
ग्राम देवता को ये लोग हातु बोंगा कहते हैं और कुल देवता को ओड़ा बोंगा।
इनके गांव की सबसे बड़ी देवी देशाउली हैं, पहाड़ देवता को ये लोग बुरू ओंगा कहते हैं।
इकिर बोंगा इनके जलदेवता है।
ये लोग प्रकृति पूजक है और टोटेम या इष्ट चिन्ह की पूजा करते हैं, गांव के पुजारी को पाहन कहते हैं।
मुंडा जनजाति में अंधविश्वास
मुंडा जनजाति के लोग झाड़फुंक में विश्वास रखते हैं, इनके झाड़फुंक करने वाले को देवड़ा कहते हैं।
प्राथमिक उपचार के लिए ये झाड़फूंक और जड़ी–बूटियों को प्राथमिकता देते हैं।
धरती आबा बिरसा मुंडा
भगवान बिरसा मुंडा भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के एक महानायक थे।
झारखंड में आदिवासियों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ इन्होंने अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लिया था।
आम लोगों के प्रति समर्पण के कारण ही इन्हे भगवान का दर्जा मिला और इन्हे धरती आबा कहा गया।
बिरसा मुंडा जी के रास्ते पर चलने वाले लोगों को बिरसाइत कहते हैं।
बिरसा मुंडा जी का जन्म 15 नवंबर 1875 को हुआ था, इन्हीं के जन्मदिन को यादगार बनाने के लिए झारखंड द्वारा 15 नवंबर 2000 को राज्य का दर्जा लिया गया।
झारखंड में 15 नवंबर के दिन राज्य स्थापना दिवस मनाया जाता है।
अंग्रेजी सरकार ने अपने खजाने भरने के लिए फॉरेस्ट एक्ट पास किया, जिसके तहत जंगलों का काटा जाना था और वहा खेती किया जाना था। आदिवासियों ने इसका विरोध किया लेकिन इनके विरोध को कुचल दिया जाता था। तब बिरसा मुंडा जी ने नेतृत्व सम्हाली और देखते ही देखते हजारों आदिवासी उनसे जुड़ गए।
बिरसा मुंडा जी अपने समर्थकों को लेकर पुलिस चौकियों में धावा बोला करते थे।
अंग्रेजी शासन के विरुद्ध इनके आंदोलन को उल गुलान कहा जाता था और ये लोग छापामार नीति से युद्ध किया करते थे।
बिरसा मुंडा जी को पकड़ने के लिए अंग्रेजो ने उनके ऊपर 500 रूपये का ईनाम रखा था।
ईनाम के लालच में बिरसा मुंडा जी के ही किसी समर्थक ने उन्हे पकड़वा दिया।
और उसके बाद ऐसी जानकारी मिलती है की रांची के जेल में इन्हे धीमी ज़हर (स्लो पॉयजन) देकर मार दिया गया। इनका निधन 9 जून 1900 को हुआ।
इन्हीं के नाम पर बिरसा मुंडा इंटरनेशनल एयरपोर्ट रांची बना है।
भगवान बिरसा मुंडा आपके और हमारे दिलों में सदैव जीवित रहेंगे।